12 जून 1975 और आपातकाल की 50वीं बरसी: जब लोकतंत्र पर डाला गया था पहरा

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Pic Credit: Aaj Tak

‘लोकतंत्र की हत्या’ की भयावह स्मृति, जिसे देश आज भी नहीं भुला पाया

न्यायपालिका के फैसले से बौखलाई सत्ता, और देश ने झेला आपातकाल

Central News Desk: 12 जून 1975 की तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। इसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देते हुए उन्हें 6 वर्षों तक किसी भी निर्वाचित पद के लिए अयोग्य ठहराया। इस फैसले ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया। हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था, जिसमें इंदिरा गांधी पर चुनाव में सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का दोष सिद्ध हुआ था।

Image Courtesy: Google News

फैसले के 13 दिन बाद लगा आपातकाल: सत्ता बचाने का तानाशाही कदम

इस फैसले के बाद कांग्रेस सरकार की ओर से किसी भी लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया या इस्तीफे की बजाय 25 जून की रात देश पर आपातकाल थोप दिया गया। 26 जून 1975 की सुबह देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में सुना — “देश में आंतरिक संकट के चलते राष्ट्रपति ने आपातकाल घोषित कर दिया है।”

यह घोषणा मात्र सत्ता बचाने का हथकंडा नहीं थी, बल्कि देश की लोकतांत्रिक नींव को हिला देने वाला निर्णय था। विरोधी दलों के नेताओं, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, छात्रों और यहां तक कि आम नागरिकों को भी जेलों में ठूंस दिया गया।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी तानाशाही की लाठी चली

बीएचयू सहित देशभर के विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलनों को कुचला गया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र, जिनमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र प्रमुखता से शामिल थे, भारी संख्या में गिरफ्तार किए गए। विश्वविद्यालय को छावनी में तब्दील कर दिया गया था।

छात्र संघों को भंग किया गया, पुस्तकालयों तक की निगरानी शुरू हुई, और किसी भी प्रकार की असहमति को देशद्रोह माना गया।

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आवाज दबाई गई, कलम तोड़ी गई, संविधान मौन कर दिया गया

आपातकाल के दौरान सबसे अधिक हमला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया पर हुआ। सेंसरशिप के जरिए अखबारों की हेडलाइन तक सरकार तय करती थी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘जनसंता’ जैसे अखबारों ने विरोधस्वरूप अपने पन्नों पर खाली जगहें छोड़ीं — यह सत्ता की सनक के खिलाफ मूक विरोध था।

ABVP की भूमिका और आज का संदर्भ

काशी हिंदू विश्वविद्यालय की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) इकाई ने इस काले दौर को याद करते हुए आज के युवाओं को यह सिखाने का प्रयास किया है कि लोकतंत्र यूं ही नहीं मिलता, इसे बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ABVP ने स्पष्ट किया कि यह केवल अतीत को याद करने की रस्म नहीं, बल्कि आने वाले समय में लोकतंत्र की रक्षा के लिए सतर्क रहने की चेतावनी भी है।

आज का भारत: क्या हमने सीखा कुछ?

आज जब देश तकनीकी प्रगति और वैश्विक मंच पर एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, ऐसे समय में यह स्मरण आवश्यक है कि यदि हम जागरूक न रहे तो लोकतंत्र के स्तंभ फिर से डगमगा सकते हैं। विरोध, बहस, मतभिन्नता — ये लोकतंत्र के मूल्य हैं, और इन्हें दबाना एक बार फिर आपातकाल की ओर लौटने जैसा होगा।

निष्कर्ष: इतिहास की पुनरावृत्ति न हो

12 जून 1975 सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि वह चेतावनी है जो बताती है कि लोकतंत्र को खोना कितना आसान और पाना कितना कठिन है। इसे बनाए रखने के लिए हर नागरिक की सतर्कता और भागीदारी जरूरी है।

आपातकाल एक व्यक्ति की सत्ता की भूख का परिणाम था, आज का भारत उसे भूल नहीं सकता और न ही भूलना चाहिए।

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