नेताओ का भाषा पर राजनीतिक संग्राम….कुर्सी लिए देश की एकता और अखंडता से खिलवाड़

Central Desk: अभी नेताओं का नया टाइम पास चल रहा है – भाषा की लड़ाई करवाओ, लोगों को जात-पात की तरह जुबान में भी बाँटो, और खुद AC दफ़्तर में बैठकर स्क्रिप्ट पढ़ो जो किसी और भाषा में लिखी होती है।कोई मराठी का शेर बनता है, कोई हिंदी को हिंदुस्तान की धड़कन बताता है, कोई तमिल को पूरी सभ्यता की नाक पर रखता है, और जो खुद अंग्रेज़ी में हलकान रहते हैं, वो मातृभाषा की दुहाई देकर माइक चबाते हैं। अरे नेताजी, भाषा से इतना ही प्रेम है तो पहले अपनी स्पीच में दो शब्द बिना टेलीप्रॉम्प्टर के बोलकर दिखाओ। “भारत की विविधता में एकता” रटते हो और भाषा के नाम पर जनता को भड़काते हो, कहीं मराठी बोर्ड नहीं दिखा तो हल्ला, कहीं हिंदी बोल दी तो हमला, भाई भाषा कोई दीवार नहीं, दरवाज़ा है – लेकिन तुमने उस दरवाज़े को बंद कर दिया है और उसकी चाबी वोट बैंक के लॉकर में रख दी है।
जिन्हें सच में भाषा से प्यार था, उन्होंने उसे जोड़ने का जरिया बनाया। अटल बिहारी वाजपेयी को ही देख लो – हिंदी में कविता लिखी, अंग्रेज़ी में गहराई से समझे, उर्दू में अदब रखा और संसद में ऐसी भाषा बोली कि विपक्ष भी तालियाँ बजा बैठा। राहुल सांकृत्यायन जैसे लोग थे जो तीस से ज़्यादा भाषाओं के जानकार थे, लेकिन कभी नहीं सुना कि उन्होंने किसी एक भाषा को दूसरे पर थोपने की ज़िद की हो। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद – जिनकी जुबान पर अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी और हिंदी यूँ नाचती थी जैसे नेता की जुबान पर वादे नहीं नाचते। जवाहरलाल नेहरू, जो अपने भाषणों में अंग्रेज़ी से लेकर हिंदी तक, और सोच में देश से लेकर दुनिया तक को जोड़ते थे। सरदार पटेल, जो हर भाषा को भारत की एकता का हिस्सा मानते थे, न कि वोट काटने की मशीन।
इन महापुरुषों ने भाषा का उपयोग लोगों को शिक्षित करने के लिए किया, और आज के नेता भाषा का इस्तेमाल लोगों को लड़ाने के लिए कर रहे हैं। जिनके पास शब्दों का खजाना था, उन्होंने लोगों को जोड़ा, और जिनके पास सिर्फ नारों की झोली है, वो आज भाषा को हथियार बना बैठे हैं। नेता जी, भाषा अगर माँ है, तो उसे ज़ुबान पर रखो, ज़हर की तरह नहीं। अगर गर्व करना है तो इस पर कि हमारे देश में सौ से ज़्यादा भाषा हैं, न कि इस पर कि कौन सी भाषा बाकी पर भारी है। और जनता को भी अब तय करना होगा कि वो अटल बनना चाहती है या सिर्फ टलती बहसों में उलझी रहना चाहती है। वरना अगली बार भाषा के नाम पर कोई तुम्हारे दरवाज़े पर नहीं दस्तक देगा – सीधा दंगे में धकेल देगा। और तुम समझते रहोगे कि “अपनी भाषा की लड़ाई लड़ रहा हूँ”, जबकि असल में लड़ तो रहा होगा तुम्हारे ऊपर कोई और – और लाठी खा रहा होगा कोई और।।

Avneesh Mishra is a young and energetic journalist. He keeps a keen eye on sports, politics and foreign affairs. Avneesh has done Post Graduate Diploma in TV Journalism.